देश की आजदी की चाह में जिन राष्ट्र भक्तों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दी, उनके अखंड भारत के सपनों को जम्मू-कश्मीर के यह विशेष प्रवाधान मुंह चिढ़ाते रहे हैं। ये विशेष प्रावधान देश की अखंडता की राह में बड़ी बाधा साबित हो रहे थे। देश के मानचित्र में यह उसकी सीमारेखा के भीतर भले ही दिखता रहा हो, लेकिन आंतरिक नियम-कानूनों को लेकर शेष भारत से यह कटा रहा।
अब जब केंद्र सरकार ने जम्मू – कश्मीर को लेकर इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है तो सही मायने में आजादी के मतवालों और शहीदों के अखंड भारत का सपना साकार हुआ है। आइए इस ऐतिहासिक भूल की पृष्ठभूमि पर डालते हैं एक नजर:
27 अक्टूबर 1947 को जब भारत ने कश्मीर के साथ हुए ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ को स्वीकार कर लिया था तो क्यों कश्मीर आज भी एक विवाद बना हुआ है? क्या भारत ने कश्मीर के साथ कोई विशेष ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ साइन किया था जो कि अन्य रियासतों के साथ हुए समझौतों से अलग था ? इन तमाम सवालों के जवाब समझने के लिए जरूरी है कि पहले कश्मीर के इतिहास और भूगोल को संक्षेप में समझ लिया जाए
जम्मू – कश्मीर मुख्यत: पांच भागों में विभाजित था – जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगिट और बाल्टिस्थान। इन सभी इलाकों को एक सूत्र में बांध कर राज्य बनाने का श्रेय डोगरा राजपूतों को जाता है। जम्मू के डोगरा शासकों ने 1830 के दशक में लद्दाख पर फतह हासिल की, 40 के दशक में उन्होंने अंग्रेजों से कश्मीर घाटी हासिल कर ली और सदी के अंत तक वे गिलगिट तक कब्ज़ा कर चुके थे। इस तरह कश्मीर एक ऐसा विशाल राज्य बन गया था जिसकी सीमाएं अफगानिस्तान, चीन औऱ तिब्बत को छूती थीं।
जिस वक्त भारत आज़ाद हुआ उस वक्त हरी सिंह कश्मीर के राजा हुआ करते थे, उन्होंने 1925 में राजगद्दी संभाली थी, यही वह दौर भी था जब कश्मीर में राजशाही के खिलाफ आवाजें उठने लगी थीं, और इन आवाजों के सबसे बड़े प्रतिनिधि थे – शेख अबदुल्ला, 1905 में जन्मे शेख अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएट थे। लेकिन अपनी तमाम शैक्षाणिक योग्यताओं के बावजूद उन्हें कश्मीर में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकी थी क्योंकि यहां के प्रशासन में हिंदुओं का बोलबाला था, मुस्लिमों के साथ हो रहे इस भेदभाव के खिलाफ शेख अब्दुल्ला ने आवाज़ उठाना शुरू किया और धीरे-धीरे वे राजा हरी सिंह के सबसे बड़े दुश्मन बन गए ।
आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशाली वक्ता होने के चलते जल्द ही शेख अब्दुल्ला घाटी में बेहद लोकप्रिय हो गए। साल 1932 में उन्होंने ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉफ्रेंस का गठन किया। कुछ सालों बाद इसी संगठन का नाम बदलकर नेशनल कॉफ्रेंस कर दिया गया। इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल थे और इसकी मुख्य मांग थी – राज्य में जनता के प्रतिनिधित्व वाली सरकार का गठन हो जिसका चुनाव मताधिकार के जरिये किया जाए। 1940 आते-आते घाटी के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके थे, वे जवाहरलाल नेहरु के भी काफी करीब आ गये थे ।
1940 का दशक जब ढलान पर था और यह साफ हो गया था कि अंग्रेज अब भारत छोड़ने ही वाले हैं, महराजा हरि सिंह ने प्रधानमंत्री रामचंद्र काक ने उन्हें कश्मीर की आज़ादी के बारे में विचार करने को कहा । कांग्रेस से नफरत के चलते महाराजा हरी सिंह भारत में विलय नहीं चाहते थे और पाकिस्तान में विलय का मतलब था उनके हिंदू राजवंश पर पूर्णविराम लग जाना। लिहाजा वे कश्मीर को एक आजाद मुल्क बनाए रखना चाहते थे। 15 अगस्त से पहले-पहले लार्ड माउंटबेटन ही नहीं बल्कि खुद महात्मा गांधी भी कश्मीर गए और महराजा हरी सिंह को भारत में विलय के लिए राजी होने को कहा, लेकिन ये सभी प्रयास निरर्थक रहे।
22 अक्टूबर को हजारों हथियारबंद लोग कश्मीर में दाखिए हो गए और तेजी से राजधानी श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगे। इन्हे कबायली हमलावर कहा जाता है जिन्हे पाकिस्तान का समर्थन मिला हुआ था। 24 अक्टूबर को महाराजा हरी सिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद मांगी । अगली ही सुबह वीपी मेनन को हालात का जायजा लेने दिल्ली से कश्मीर रवाना किया गया। मेनन सरदार पटेल के नेतृत्व वाले राज्यों के मंत्रालय के सचिव थे। वे जब महाराजा से श्रीनगर में मिले तब तक हमलावतर बारामूला पहुंच चुके थे। ऐसे में उन्होंने महाराजा को तुरंत जम्मू रवाना हो जाने को कहा और वे खुद कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन को साथ लेकर दिल्ली लौट आए।
अब स्थिति ऐसी बन चुकी थी कि कश्मीर की राजधानी पर कभी भी हमलावरों का कब्ज़ा हो सकता था। महराजा हरी सिंह भारत के मदद की उम्मीद लगाए बैठे थे। ऐसे में लार्ड माउंटबेटन ने सलाह दी कि कश्मीर में भारतीय फ़ौज को भेजने से पहले हरी सिंह से इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर करवाना बेहतर है। मेनन को एक बार फिर से जम्मू रवाना हुए। अगले कुछ दिनों में सैकड़ों बार विमानों को दिल्ली से कश्मीर भेजा गया और कुछ ही दिनों में पाकिस्तान समर्थित कबायली हमलावरों और विद्रोहियों को खदेड़ दिया गया ।
इसके साथ ही कश्मीर पर भारत का औपचारिक, व्यवहारिक और आधिकारिक कब्जा हो गया। लेकिन कुछ चीजें अब भी अनसुलझी थी। ये अनसुलझी चीजें ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन नहीं बल्कि वे औपचारिकताएं थीं जो अन्य रियासतों में पूरी की जा चुकी थीं लेकिन कश्मीर में अधूरी रह गई थीं।
एक जनवरी 1948 को भारत ने कश्मीर के सवाल को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने का फैसला किया ऐसा लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर किया गया। उनका मानना था कि चूंकि कश्मीर का भारत में विलय हो चुका है लिहाजा संयुक्त राष्ट्र कश्मीर के उत्तरी इलाके को मुक्त कराने में मदद करे जो कि पाकिस्तान समर्थक गुट के कब्जे में चला गया था। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की तरफ से जफरुल्ला खान ने इस मुद्दे में पैरव की, वहां भारत की तुलना में खान ने कहीं बेहतर तरीके से अपना पक्ष रखा और वे संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों को यह भरोसा दिलाने में सफल हो गए कि कश्मीर पर हमला बंटवारे के दौरान उत्तर भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों का नतीजा था। यह मुसलमानों द्वारा अपने समुदाय के लोगों की तकलीफों के चलते हुई एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। इस तरह उन्होंने कश्मीर को बंटवारे की अधूरी प्रक्रिया के तौर पर पेश किया। इसका इतना प्रभाव हुआ कि सुरक्षा परिषद ने इस मामले का शीर्षक जम्मू कश्मीर प्रशन से बदलकर भारत-पाकिस्तान प्रश्न कर दिया।