यूँ तो ये पूरा विश्व भांति भांति के लोगों से भरा हुआ है. हर मनुष्य अपने आप में निराला और अनोखा होता है. परन्तु कुछ ऐसे भी ज्ञानी लोग हमारे बीच समय समय पर विराजमान हो जाते हैं जो दिखते तो हम और आप जैसे साधारण मनुष्य ही हैं, परन्तु उनके कार्य एवं उनकी प्रतिभा उन्हें साधारण मानव से अलग और अलौकिक बना देती है. ऐसे ही एक महापुरुष हुए “मोहम्मद पैगम्बर” . उनके व्यक्तित्व ने एवें उनके कार्यों ने उन्हें अल्लाह का भेजा हुआ दूत बना दिया.
कौन थे मोहम्मद: मोहम्मद साहब की असलियत
मोहम्मद साहब इस्लाम धर्म के प्रवर्तक थे. इनका जन्म ८ जून सन ५७० ईसवी को अरब के मक्का शहर में हुआ था. इन्होने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया. इन्हें इस्लाम के सबसे बड़े नबी और आखिरी संदेशवाहक होने का गौरव हासिल है. मुस्लिम सम्प्रदायें के लोग इनके प्रति बहुत ही प्रेम, सम्मान और आदर का भाव रखते है. इस्लाम में मुहम्मद का अर्थ होता है जिसकी अत्यंत प्रशंसा की गई हो. कुरआन में तो मोहम्मद साहब को “अहमद” के नाम से भी नवाज़ा गया है जिसका अर्थ होता है “सबसे ज्यादा प्रशंसा के योग्य”. इनके पिता का नाम अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मुत्तलिब और माता का नाम बीबी आमिनाह था. चूँकि इनके जन्म के फ़ौरन बाद ही मोहम्मद साहब की माता का इंतकाल हो गया था और इनके पिता इनके जन्म के पहले ही गुजर चुके थे. ऐसा माना जाता है कि इन्हें अल्लाह ने अपने फ़रिश्ते जिब्राइल के माध्यम से कुरआन का सन्देश दिया था.
हिजरी सन : इस्लामी महीनो के नाम
हिजरी सन की शुरुआत भी मोहम्मद साहब से ही हुई है. जब मोहम्मद साहब अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना की यात्रा के लिए रवाना हुए तो उनकी इस यात्रा को हिज़रत के नाम से जाना जाने लगा. यही से इस्लामिक कैलेण्डर हिजरी की शुरुआत हुई. मदीना में इनका बहुत ही जोरदार स्वागत किया गया और कई लोगो द्वारा इस्लाम को ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया गया. उन दिनों मदिनावासी आपस में बटें हुए थे और आपसी संघर्षो एवं झगडे-फ़साद में उलझे हुए थे.
मोहम्मद साहब के उपदेशों ने उन्हें नया जीवनदान दिया और एकजुट रहने के लिए प्रेरित किया. लगभग मोहम्मद साहब अपने उपदेशों और विचारधारा से मदीना शहर में बहुत ही ज्यादा लोकप्रिय हो गए थे और उनके अनुयायियों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी. सन ६३० ईसवी में मोहम्मद साहब ने मक्का की ओर कूच किया और बिना युद्ध किये ही मक्का पर विजय हासिल कर ली. मोहम्मद साहब और उनके अनुयायियों के सामने मक्का के रहवासियों ने आत्मसमर्पण कर दिया और इस प्रकार सम्पूर्ण मक्का मुसलमानों के कब्ज़े में चला गया जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण मक्क्वासियों ने इस्लाम कबूल कर लिया. मोहम्मद साहब ने मक्का में स्थित काबा को इस्लाम के पवित्र स्थल के रूप में चुना. चूँकि सन ६३२ में ६२ वर्ष की आयु में तेज़ बुखार की वजह से मोहम्मद साहब का देहांत हो गया परन्तु तब तक सम्पूर्ण अरब में इस्लाम फैल चुका था और लगभग प्रत्येक अरबवासी इस्लाम कबूल भी कर चुका था.
मोहम्मद साहब का आरंभिक जीवन :
मोहम्मद साहब के समय अरब में यहूदी, ईसाई और अन्य संप्रदाय के मूर्तिपूजक कबीलों के रूप में रहते थे. लगभग पूरे का पूरा मक्का शहर ही छोटे-बड़े कबीलों में बंटा हुआ था. अपने आरंभिक दिनों में मोहम्मद साहब ने खादिजा नामक एक विधवा व्यापारी के यहाँ नौकरी करना शुरू कर दिया था लेकिन बाद में इन्होने इसी विधवा औरत खादिजा से विवाह भी कर लिया. ऐसा माना जाता है कि सन ६१३ के आस-पास मोहम्मद साहब को अल्लाह का दीदार हुआ और उन्होंने लोगो के बीच में ये प्रचार करना प्रारंभ कर दिया कि उन्हें अल्लाह ने ये पैगाम दिया है कि ईश्वर एक है. संक्षिप्त में कहा जाए तो उन्होंने एकेश्वरवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित किया. मोहम्मद साहब मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे. लेकिन उन्हें भी घोर विरोध का सामना करना पड़ा. इनके विचारो को स्वीकार करना मक्का के रहवासियों द्वारा इतना आसान नहीं था.
मोहम्मद साहब का उत्तराधिकारी :
मोहम्मद साहब के मृत्यु के उपरान्त मुस्लिम धर्मावलम्बियों के बिखरने का डर लगभग सभी को हो रहा था क्योंकि कोई भी व्यक्ति इस्लाम का वैध उत्तराधिकारी नहीं था और ये उत्तराधिकारी सबसे बड़े इस्लामिक संप्रदाय का मालिक होता. उस दौर में अरब लोग बैजेंताइन और फारसी सेनाओं में योद्धा के रूप में लड़ते रहते थे लेकिन उनमे भी कोई कभी भी इतने बड़े संप्रदाय का मालिक नहीं था. इस प्रकार एक संस्था का गठन किया गया जिसे ख़िलाफत की संस्था कहा जाता था. इस संस्था का मुख्य कार्य ये तय करना था कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन होगा. सर्वप्रथम मोहम्मद साहब के खास मित्र अबू बकर को इस्लाम का उत्तराधिकारी घोषित किया गया.
मोहम्मद साहब का जीवन परिचय
मोहम्मद साहब ने अपना संपूर्ण जीवन बेहद ही सादगी से जिया है. आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि मोहम्मद साहब अपनी पूजा के घोर विरोधी थे और यही कारण है कि दुसरे धर्मो के धर्मोपदेशको की तरह उन्होंने किसी भी चित्रकार से अपना कोई भी चित्र नहीं बनवाया. मोहम्मद साहब पैगम्बर इब्राहीम के बेटे पैगम्बर इस्माइल के वंशज थे. जानकारों के मुताबिक मोहम्मद साहब के बचपन का नाम “मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मुत्तलिब” था. अपने जन्म से ही मोहम्मद साहब अनाथ थे इसीलिए इनका लालन-पालन इनके चाचा अबू तालिब और दादा अब्दुल मुत्तलिब के संरक्षण में हुआ. जब इनका आयु के नवें वर्ष में प्रवेश हुआ तभी से ये अपने चाचा के साथ व्यापारिक दौरे पर जाने लगे थे. इन यात्राओ के दौरान इनकी मुलाकाते कई प्रकार के लोगो से तो हुई ही साथ ही साथ दुसरे देशों की सभ्यताओं और विचारधाराओं से भी इनका परिचय हुआ. वे जहाँ भी जाते लोग इनके मृदु स्वाभाव और आचरण से स्वयं को आकर्षित होने से नहीं रोक पाते थे. लोग इन्हें विश्वस्त कहकर बुलाते थे और इनका उस समय के कई ईसाई विद्वानों से भी मुलाक़ाते हुई. इन्होने जब पहला निकाह किया तब इनकी उम्र २५ वर्ष की थी और इनकी बेगम की उम्र ४० वर्ष थी.
मुहम्मद साहब और आयशा
अपनी पत्नी खादीजा के साथ मोहम्मद साहब का सम्बन्ध ५४ वर्ष तक था और इनके पुत्र भी हुए थे लेकिन सभी का निधन बचपन में ही हो गया था. इसके बाद उन्होंने दूसरा निकाह एक ९ वर्ष की अबोध बालिका से किया जिसका नाम सैय्यदा आयशा था. उस दौर में अरब देश में इस तरह के विवाह को सामाजिक मान्यता हासिल थी. मोहम्मद साहब की एक सबसे दिलचस्प खासियत ये थी कि वो कभी भी अकेले खाना नहीं खाते थे बल्कि दूसरों को आमंत्रित किया करते थे. नियमित रूप से बीमार और गरीबों की सेवा करना इनकी दिनचर्या का हिस्सा था और सबसे पहले इन्होने ही खाने से पहले और खाने के बाद में हाथ धोने की परम्परा की शुरुआत की. मोहम्मद साहब अपने काम स्वयं ही किया करते थे जैसे कि अपने कपड़े खुद ही सिलना, जुटे की मरम्मत करना और झाड़ू-पोछा करना इत्यादि. चूँकि मोहम्मद साहब एक गृह्हस्थ फ़कीर थे तो वो घरेलु सामनों की खरीद के लिए स्वयं बाज़ार भी जाते थे. इस्लामिक जानकारों के अनुसार मोहम्मद साहब पढ़े-लिखे नहीं थे और ऐसा माना जाता है कि उन पर अल्लाह की आदेश नाजिल हुई थी और उनके मृत्यु के बाद अल्लाह के आदेशों का संकलन ही पूरी दुनिया के सामने “कुरआन” के रूप में आया.
जब उनको अल्लाह का साक्षात्कार हुआ तब उन्होंने पूरे अरब में अल्लाह के संदेशों का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया और उन्होंने पूरे अरब के राजाओं और नेताओं को इस्लाम कबूल करने के लिए पत्र भी भेजे. चूँकि मोहम्मद साहब में गजब की दृढ़ता, धैर्य और आत्मविश्वास था और यही कारण था कि सभी गैर-मुस्लिमों के विरोध के बावजूद वो सम्पूर्ण अरब में इस्लाम का सन्देश दे सकने में सक्षम हुए. अल्लाह से आत्मसाक्षात्कार के बाद का उनका जीवनकाल लगभग २३ वर्षों का ही रह पाया लेकिन इस पूरी अवधिकाल में उन्होंने कभी भी स्वयं को किसी ईश्वरीय शक्ति के रूप में स्थापित नहीं किया.
मुहम्मद साहब के बच्चे “मुहम्मद साहब एंड फातिमा रिलेशन”
मोहम्मद साहब के तीन बेटे और चार बेटियाँ थी और उनके परिवार को “अहल-अल-बैत” कहा जाता था. उनकी पहली पत्नी खदीजा से उनको छह बच्चे हुए और एक बेटा उनकी एक और पत्नी मारिया से था. उनकी एक अन्य बेटी फातिमा को छोड़कर उनके सभी बच्चो की मृत्यु मोहम्मद साहब की मृत्यु से पहले ही हो चुकी थी. देखा जाए तो मोहम्मद साहब ने कुल मिलाकर ११ निकाह किये थे.
मोहम्मद साहब एकान्तप्रिय थे. उनका मन जब भी अशांत होता या फिर लोगो को अल्लाह की राह से भटका हुआ देखते थे तो उनका मन बहुत है व्यथित हो जाता था और वे एकांत और शांति के लिए हीरा गुफ़ा में चले जाते थे. ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले हीरा गुफ़ा में ही अल्लाह के संदेशवाहक जिब्राइल ने ही मोहम्मद साहब को अल्लाह के संदेशो की जानकारी दी.
मोहम्मद की मौत कैसे हुई
62 वर्ष की उम्र में अरब के याथ्रिब में तेज़ बुखार के कारण मोहम्मद साहब का निधन हो गया. हेजाज़ सऊदी अरब के मदीना में स्थित अल-मस्जिद-अल-नबावी के हरे गोल गुम्बद के नीचे ही मोहम्मद साहब को दफनाया गया. मोहम्मद साहब और उनका नाम इतिहास के सबसे प्रभावशाली लोगो में शुमार है.